कृष्णन, जो एक मेहनतकश मजदूर हैं, अब अपनी पूरी फैमिली के साथ एक सामुदायिक आश्रम में रह रहे हैं। उनका कहना है –“अगर हम कहीं दूर जाते, तो रोज़गार ही चला जाता… इसलिए मजबूरी में आश्रम में रहना पड़ा।” जाने इसके बारे में ? 

Delhi News:-दिल्ली में मद्रासी कैंप के नाम से जानी जाने वाली एक झुग्गी बस्ती अब इतिहास बन चुकी है।
कृष्णन नाम के एक मजदूर, जो वहां 60 सालों से अपने परिवार के साथ रहते आए थे, अब मजबूरी में ‘सनलाइट आश्रम’ में रहने को मजबूर हैं।
उनके चेहरे पर थकान साफ दिख रही थी जब उन्होंने कहा –
“हमने आश्रम चुना नहीं है, हमें वहां जाना पड़ा… क्योंकि हमारा घर अब मिट्टी में मिल चुका है।”
कृष्णन की सबसे बड़ी चिंता रोज़गार की है। उनका वर्कप्लेस पास में है, और अगर वह कहीं दूर जाते, तो नौकरी छूटने का डर था। यही वजह है कि उन्होंने आश्रम में शरण ली, चाहे वहां की हालत कैसी भी हो।
🔹 370 घर मलबे में तब्दील, पुनर्वास अब भी अधूरा
दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद, नगर निगम ने अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाया और बारापुला ब्रिज के पास की झुग्गियों को गिरा दिया।
कहा गया कि यह इलाका नाले के पास था और मानसून में जलभराव का बड़ा कारण बनता था।
परंतु समस्या यह है कि यह झुग्गियां सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं थीं — ये लोगों के जीवन भर की जमापूंजी और यादों का घर थीं।
370 परिवारों के घर एक झटके में तोड़ दिए गए, लेकिन केवल 189 परिवारों को ही पुनर्वास के लिए पात्र माना गया।
बाकी परिवार अब भी या तो आश्रमों में हैं या फिर खुली सड़कों पर रातें गुज़ारने को मजबूर हैं।
🔹 “एक कमरे में सात लोग… ये क्या ज़िंदगी है?”
प्रशांत, जो एक वाहन चालक हैं और दशकों से मद्रासी कैंप में रहते आए हैं, अब अपने पूरे परिवार के साथ एक छोटे से कमरे में रह रहे हैं।
उन्होंने कहा –
“यहां मैंने अपने बच्चों को बड़ा किया… अब सात लोग एक छोटे कमरे में सिमट गए हैं। सोचना भी मुश्किल है कि एक दिन में सब कुछ बदल जाएगा।”
ऐसी हालत सिर्फ प्रशांत की नहीं है।
करीब 150 से ज़्यादा लोग आसपास के सामुदायिक आश्रमों में शरण लिए हुए हैं, जहाँ जगह कम है और किराया पहले से दुगुना हो गया है।
जो आश्रम पहले 4,000 रुपये लेते थे, अब वही 8,000 मांग रहे हैं।
🔹 सरकार बोली – “अभियान ज़रूरी था”, पर लोग बोले – “हमसे कुछ पूछा भी नहीं”
दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के जिलाधिकारी अनिल बांका ने बताया कि यह तोड़फोड़ दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर हुई।
उन्होंने कहा कि बारापुला नाले का रास्ता संकरा हो गया था, जिससे साफ-सफाई मुश्किल हो रही थी और बाढ़ का खतरा बढ़ गया था।
उन्होंने यह भी बताया कि जिन 370 घरों को तोड़ा गया, उनमें से 189 को पुनर्वास के लिए योग्य माना गया है, और बाकी की प्रक्रिया अभी जारी है।
लेकिन स्थानीय निवासी सवाल कर रहे हैं —
“अगर घर तोड़ने से पहले हमें चेतावनी दी होती, तो हम अपनी चीज़ें तो बचा लेते। घर का सामान, बच्चों की किताबें, दवाइयां… सब कुछ मलबे में दब गया।”
🔹 नरेला में मिलने वाले फ्लैट, लेकिन किसे और कैसे?
सरकारी पुनर्वास योजना के तहत कुछ परिवारों को नरेला में फ्लैट देने की बात कही गई है।
सूची 12 अप्रैल को जारी की गई थी, और 30 मई को लोगों को ट्रकों से स्थानांतरित करने की सूचना दी गई।
परंतु ज़मीनी सच्चाई यह है कि बहुत से लोगों को अब तक यह भी नहीं बताया गया कि वे सूची में हैं या नहीं।
सुमिधि, जो 30 साल से मद्रासी कैंप में रह रही थीं, कहती हैं:
“मेरी बेटी गर्भवती है… और हमें कहा गया था कि घर मिलेगा। लेकिन आज तक हमें कोई खबर नहीं मिली। हम कहां जाएं?”
🔹 क्या सिर्फ कागजों में मिल रहा है इंसाफ?
यह मामला सिर्फ झुग्गियों का नहीं है, यह ज़िंदगी के दोराहे पर खड़े इंसानों की कहानी है।
जिनके पास न तो सुरक्षित छत है, न कोई स्थायी पता, और न ही भविष्य को लेकर कोई स्पष्ट जवाब।
पुनर्वास की प्रक्रिया अधूरी है, जानकारी का अभाव है, और सबसे बड़ी बात — विश्वास की कमी है।
लोग सरकार से बस एक ही सवाल कर रहे हैं —
“अगर घर तोड़ना ज़रूरी था, तो घर देना भी ज़रूरी क्यों नहीं बना?”