उत्तर प्रदेश के दिहुली गांव में 1982 में हुए भीषण नरसंहार के पीड़ित परिवारों को 44 साल बाद आखिरकार न्याय मिल गया। जाने इसके बारे में ? 

Dihuli massacre News;-उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के दिहुली गांव में 1982 में हुए भीषण नरसंहार के पीड़ित परिवारों को 44 साल बाद न्याय मिला। मंगलवार को स्पेशल डकैती कोर्ट की न्यायाधीश एडीजे इंद्रा सिंह ने इस खौफनाक हत्याकांड में शामिल तीन दोषियों कप्तान सिंह, रामसेवक और रामपाल को फांसी की सजा सुनाई। इसके अलावा, तीनों पर 50-50 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया गया। अदालत का फैसला सुनते ही तीनों दोषी फूट-फूटकर रोने लगे। वहीं, पीड़ित परिवारों ने कहा कि देर से ही सही, लेकिन उन्हें इंसाफ मिल गया।
क्या था पूरा मामला?
यह नरसंहार 18 नवंबर 1981 को हुआ था, जब कुख्यात डकैत राधेश्याम उर्फ राधे और संतोष उर्फ संतोषा के गिरोह ने दिहुली गांव में 24 दलितों को गोलियों से भून दिया था। इन निर्दोष लोगों में पुरुष, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। इस हत्याकांड की वजह मुखबिरी और गवाही का बदला बताया जाता है।
डकैतों को शक था कि गांव के कुछ लोगों ने पुलिस को उनकी मौजूदगी और गतिविधियों की जानकारी दी थी। इसी गुस्से में, डकैतों ने पूरी निर्दयता से गांव पर हमला कर दिया और मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया। यह घटना इतनी भयावह और दिल दहला देने वाली थी कि पूरे देश में हड़कंप मच गया था।
देशभर में हुआ था बवाल
इस नरसंहार के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित कई बड़े नेता दिहुली गांव पहुंचे थे और पीड़ित परिवारों से मुलाकात की थी। इस मामले में कुल 17 लोगों को आरोपी बनाया गया, लेकिन 44 साल की लंबी कानूनी लड़ाई में 13 आरोपी मर चुके हैं, जबकि एक आरोपी आज भी फरार है।
कैसे चला केस?
पहले यह केस फिरोजाबाद जिले के थाना जसराना में दर्ज हुआ था, लेकिन बाद में मैनपुरी जिला बनने पर इसे वहां स्थानांतरित कर दिया गया। 44 साल तक चली सुनवाई के बाद अदालत ने मंगलवार को तीन दोषियों को फांसी की सजा सुनाई।
फैसले पर क्या बोले दोषी और पीड़ित परिवार?
अदालत का फैसला सुनते ही तीनों दोषी रोने लगे। कप्तान सिंह ने खुद को निर्दोष बताते हुए कहा कि उसे झूठा फंसाया गया है। लेकिन पीड़ित परिवारों का कहना है कि उन्हें आखिरकार इंसाफ मिल गया।
इस नरसंहार में अपने बाबा, पिता और चाचा को खोने वाले ज्ञान सिंह ने कहा,
“जब भी इस घटना के बारे में सुनता हूं, मेरी आंखों से आंसू रुकते नहीं हैं।”
वहीं, मीना देवी, जिन्होंने इस घटना में अपने परिवार के कई लोगों को खो दिया, ने कहा,
“फैसला आने में बहुत देर हुई, इतने सालों में हमारे आंसू भी सूख चुके हैं, लेकिन अब कम से कम न्याय मिल गया।”
अब क्या होगा?
फांसी की सजा पाए तीनों दोषियों के पास ऊपरी अदालत में अपील करने का मौका है। अगर वे उच्च न्यायालय और फिर सुप्रीम कोर्ट में भी दोषी साबित होते हैं, तो अंत में उन्हें राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर करने का अंतिम अवसर मिलेगा।
इस फैसले से यह साफ हो गया है कि न्याय में देरी हो सकती है, लेकिन इंसाफ जरूर मिलता है। यह मामला भारत की न्याय प्रणाली के धैर्य और दृढ़ संकल्प का उदाहरण है। हालांकि, 44 साल की देरी से मिले इस इंसाफ ने पीड़ित परिवारों की अधूरी जिंदगी को शायद पूरी तरह से ठीक नहीं किया होगा, लेकिन उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है।