Kolhapur की चप्पल, प्राडा का तमगा! Indian डिजाइन का ग्लोबल शोषण

भारत की हस्तशिल्प परंपराएं सदियों पुरानी हैं और इनमें से कई आज भी देश की पहचान का हिस्सा हैं। इन्हीं में से एक है कोल्हापुरी चप्पल, जो महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर से जुड़ी हुई एक अनोखी और पारंपरिक कला है। जाने पूरी जानकारी ? Kolhapur

Kolhapur Slipper:-भारत की पारंपरिक चीजों की पहचान पूरी दुनिया में है, और कोल्हापुरी चप्पल उसी विरासत का एक अनमोल हिस्सा है। लेकिन हाल ही में एक ऐसी खबर सामने आई है जिससे हर भारतीय का सिर झुक जाए। इटली की बड़ी फैशन कंपनी “प्राडा” (Prada) ने भारत की कोल्हापुरी चप्पल की डिजाइन को बिना किसी क्रेडिट के अपने ब्रांड में शामिल कर लिया है और उसे दुनिया को एक विदेशी फैशन आइटम के रूप में दिखा रही है।

 क्या है पूरा मामला?

कुछ दिन पहले इटली के मिलान शहर में एक फैशन शो हुआ, जहां Prada ने अपनी मेन्सवियर कलेक्शन पेश की। इस शो में मॉडल्स ने जो चप्पलें पहनी थीं, उनकी डिजाइन हूबहू महाराष्ट्र के कोल्हापुर में बनने वाली कोल्हापुरी चप्पलों जैसी थी। न तो डिजाइन में कोई बदलाव किया गया और न ही भारत या भारतीय कारीगरों को इस डिज़ाइन का कोई श्रेय दिया गया।

इतना ही नहीं, इन चप्पलों की कीमत 60,000 रुपये से 80,000 रुपये तक रखी गई, जबकि भारत में ये चप्पलें 500 से 3,000 रुपये तक में मिल जाती हैं। यानी भारत की देसी विरासत को ग्लोबल मार्केट में 100 गुना महंगे दाम पर बेचा जा रहा है — वो भी बिना भारत का नाम लिए।

🇮🇳 कोल्हापुरी चप्पल की कहानी 800 साल पुरानी है

  • कोल्हापुरी चप्पलों की शुरुआत करीब 800 साल पहले मानी जाती है।

  • इतिहास के अनुसार, यह परंपरा किंग बिज्जला और उनके मंत्री बसवन्ना के समय शुरू हुई थी।

  • यह चप्पलें प्योर लेदर से बनाई जाती हैं, और इन पर रंग चढ़ाने के लिए सब्जियों और बीजों से बने प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है।

  • इन चप्पलों को धूप में सुखाकर, फिर कई दिनों तक रंग में भिगोया जाता है। उसके बाद इन्हें काटकर, सिला जाता है और पॉलिश किया जाता है।

  • एक जोड़ी चप्पल बनाने में 3 से 15 दिन का समय लग सकता है।

  • यही मेहनत और कारीगरी कोल्हापुरी चप्पल को खास बनाती है – ये आरामदायक, टिकाऊ और पूरी तरह से हाथ से बनाई गई होती हैं।

🏷️ कोल्हापुरी चप्पल को मिला है GI टैग

कोल्हापुरी चप्पल को 2019 में “Geographical Indication” (GI) टैग मिला था।
GI टैग का मतलब होता है कि कोई खास प्रोडक्ट सिर्फ उसी क्षेत्र में बनाया जा सकता है, जहां वह परंपरागत रूप से बना है।

इस टैग के अनुसार, कोल्हापुरी चप्पलों को सिर्फ महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली, सोलापुर और सतारा, और कर्नाटक के बेलगाम, धारवाड़, बागलकोट और बीजापुर में ही बनाया जा सकता है।
यह टैग डिज़ाइन और ट्रेडमार्क विभाग द्वारा दिया जाता है ताकि उस डिज़ाइन की चोरी न हो सके।

😡 क्या गलत किया प्राडा ने?

  • प्राडा ने कोल्हापुरी डिज़ाइन का इस्तेमाल किया, लेकिन न तो भारत का नाम लिया और न ही कोई क्रेडिट दिया

  • उन्होंने इसे अपने फैशन कलेक्शन का हिस्सा बताया, जबकि यह डिज़ाइन भारत की परंपरा और संस्कृति से जुड़ी हुई है।

  • भारतीय कारीगरों की मेहनत को नजरअंदाज किया गया और उसी चीज को बड़ी कीमत पर बेचा गया।

🌐 दुनियाभर में हो रही है आलोचना

इस मामले को लेकर सोशल मीडिया से लेकर फैशन इंडस्ट्री तक में प्राडा की आलोचना हो रही है। लोग इसे “कल्चरल अप्रोप्रिएशन” (Cultural Appropriation) कह रहे हैं — यानी किसी संस्कृति की चीज़ को बिना इजाज़त और श्रेय दिए अपनाना और उससे मुनाफा कमाना।

🧵 भारत की हस्तशिल्प को चाहिए ग्लोबल पहचान

यह कोई पहली बार नहीं है जब विदेशी ब्रांड्स ने भारतीय डिज़ाइनों या हस्तशिल्प को अपनाया हो और उसे अपना बताया हो। लेकिन अब वक्त आ गया है कि:

  • भारतीय कारीगरों को उनका हक मिले।

  • सरकार ऐसे मामलों पर सख्त कार्रवाई करे।

  • और दुनिया को बताया जाए कि भारत सिर्फ एक बाजार नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत का धनी देश है, जिसकी कला और कारीगरी अनमोल है।

भारत की कोल्हापुरी चप्पल सिर्फ एक फैशन आइटम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, इतिहास और कारीगरी का प्रतीक है। जब कोई विदेशी ब्रांड इसे बिना श्रेय दिए अपना बताता है, तो वह सिर्फ डिजाइन नहीं चुराता, बल्कि एक देश की पहचान और मेहनत को भी छीनता है।

हमें अपनी पारंपरिक चीजों पर गर्व करना चाहिए और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सही पहचान दिलाने के लिए आवाज उठानी चाहिए।

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